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ये पहली किताब थी जो हमने राजेंद्र यादव की पढ़ी, संयोग से ये राजेंद्र यादव की भी पहली किताब थी जो उन्होंने 1951 में लिखी थी। इस किताब में तुम साफ़ साफ़ ये देख पाओगे कि कैसे लेखक प्रेमचंद जी से प्रभावित है। और महिला पात्र को मज़बूत दिखाया गया है, पात्र के हर बात को जस्टिफ़ाई भी वैसे ही किया गया जैसे प्रेमचंद जी करते थे।
इसमें एक नौजवान की कहानी है, जिसकी बहुत कम उम्र में शादी हो जाती है उसकी मर्ज़ी के विरोध। फिर विद्रोह में वह अपनी पत्नी से 1 साल तक कोई भी बात नही करता है। और उसके बाद संयुक्त परिवार में कैसे उनका तालमेल बैठता है। कैसे उसके माता पिता से उसके सम्बंध प्रभावित होते है।
कैसे समर और प्रभा,अपने भविष्य के सपने देखते है। और कैसे इन सब हालातों में भी प्रभा सब सम्भालती है। हक़ीक़त में निम्न मधय्म वर्गीय परिवारों के लिए अब भी कुछ नही बदला है। कुछ स्मवाँद से लेखक ने रूढ़िवादी सोच और प्रगतिवादी सोच की बहस दिखायी है, वह बहुत शानदार है।
पहले ये किताब अलग शीर्षक से प्रकाशित हुई थी : ‘प्रेत बोलते है’। बाद में उसके कुछ पाठ हटा के दुबारा से ‘सारा आसमान’ से प्रकाशित हुआ। हाल के संस्करण में एक पाठ आख़िर में जोड़ा गया है जो सती प्रथा की हक़ीक़त दिखाता है। ये अच्छी बात है की कम से कम अब सती प्रथा से तो छुटकारा मिला।
ओवर ऑल, ये प्रेमचंद के क्लास की आसपास की किताब है।
इस पर एक मूवी भी बनी है।